अस्मारा ख़ान शहर इंदौर , मध्य प्रदेश की रहने वाली थी। मुम्बई की एक एड एजेंसी में कैमपेन मैनेजर के तौर पर काम कर रही थी। एक असाइनमेंट के लिए कोलकाता में थी। बहुत दिनों बाद उस की छुट्टी की दरख़ास्त मंज़ूर हो गई। अपनी फ़ैमिली, और दोस्तों के साथ छुट्टीयों को ज़बरदस्त तरीक़े से गुज़ारने के लिए बहुत सारे प्लान बनाए थे। वो नहीं जानती थी कि क़िस्मत उस के लिए कुछ और ही प्लान किए हुए है।
सफ़र की लम्हा बह लम्हा एक मुख़्तसर कहानी, अस्मारा की ज़बानी।
मिलना था इत्तिफ़ाक़
सूरज अपनी पूरी आब-व-ताब के साथ चमक रहा था। शाम के छः बजे गए थे। ऑफ़िस की कैब के लिए पार्किंग एरिया की तरफ़ चलते हुए मुझे अपनी आँखों को सिकोड़ना पड़ा था ताकि मैं ख़ीरा कर देने वाली धूप के पार देख सकूं।ऑफ़िस की कैब में बैठी तो यूं महसूस होने लगा कि ओवन को एक सौ अस्सी दर्जा तक प्री हीट करके रखा हुआ हो, और मैं रोस्ट हो रही हूं। हर कुछ सेकेंड बाद चेहरे से पसीना पोंछते हुए तंग सी आ गई थी। आज मुझे घर तक का पच्चीस मिनट का रास्ता मज़ीद तवील लगा।
घर पहुंचते पहुंचते मैं पसीने से शराबोर हो गई थी। गर्मी के साथ साथ मर्तुब मौसम जान-लेवा साबित हो रहा था। अजीब हब्स ज़दा सा मौसम था। सर में दर्द होने लगा था। लग रहा था कि किसी भी लम्हा सर फट जाएगा। मैंने कपड़े खंगाल कर डाले, शावर लिया। तब कहीं जाकर थोड़ा सुकून मिला।
आज मैं खाना नहीं खा पाई थी। दो बजे के बाद एक मीटिंग थी।मुझे सर खुजाने तक की मोहलत नहीं थी। खाने के लिए वक़फ़ा देना तो दौर की बात। अब भूक से मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे थे। मैंने फ़ोन की तरफ़ देखा। साढ़े सात बज रहे थे। मैं एक और लड़की के साथ एक बेडरूम अपार्टमंट में रह रही थी। आज उस के खाना बनाने की बारी थी। अब तक वो आई नहीं थी । अब मैं उस के इंतिज़ार में भूकी तो नहीं मर सकती थी। मैंने सादा चावल उबाल लिए और दही के साथ खा लिया।
सवा आठ हो गए थे। अब तक वो आई नहीं थी। मुझे ग़ुस्सा आ रहा था। अब ये रोज़ का मामूल हो गया था। मुझे ये बिलकुल पसंद नहीं कि लोग मेरी दोस्ताना फ़ित्रत का फ़ायदा उठाएं । मैं ब-आसानी से लोगों की बातों में आ जाती थी। कनफ्रंट करने से भी झिझकती थी। लेकिन इस का ये मतलब हरगिज़ नहीं कि मैं उसे बर्दाश्त करने पर मजबूर थी।
अब इस प्राब्लम को हल करना ही पड़ेगा। घर के काम काज के लिए एक मुलाज़िमा रख लेनी चाहिए। ग़ुस्सा से जलते भुनते मैंने यूट्यूब पर इस साल आने वाली मूवीज़ के ट्रेलरज़ देखने शुरू किए। शायद मेरा ध्यान बट जाये। कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा।
पौने नौ बजे के क़रीब मेरा फ़ोन बजा। अम्मी की काल थी। मैंने फ़ोन उठाया, लेकिन आवाज़ साफ़ नहीं आ रही थी। एक लफ़्ज़ भी पल्ले नहीं पड़ा। घर का मोबाइल काफ़ी दिनों से मसला कर रहा था। मैं पहले ही चिड़चिड़ी हो रही थी। काल के बाद इख़तिलाज मज़ीद बढ़ गया।
अगले दिन घर के लिए रवाना होना था।तीन दिन की छुट्टियां मिली थीं। और वीक ऐंड के दो दिन मिलाकर में घर पर आराम से कुछ वक़्त गुज़ार सकती थी। काफ़ी अरसा से छुट्टी नहीं ली थी। एक ब्रेक की सख़्त ज़रूरत थी। अब घर जाकर करने वाले कामों की फ़हरिस्त में एक और इज़ाफ़ा हो गया था। नया फ़ोन ख़रीदना था।
अगले दिन मुझे थोड़ा जल्दी निकलना था। मैंने अलार्म ऐप खोली ताकि नया अलार्म सेट करूँ। ऐप चली नहीं। मैंने री स्टार्ट करके ट्रॉय किया, वही मसला। फिर मैंने फ़ोन को ही रीबूट कर दिया। मजाल है जो कोई फ़र्क़ पड़ा हो।
मैं पहले ही थकी हुई थी। तंग आकर मैंने कैलेंडर में जाकर सुबह साढे़ छः बजे का एक रिमाफ़र्क डाला। कोई तो तरीक़ा हो जल्दी जागने का। वो भी क्या दिन थे जब अलार्म घड़ी हुआ करती थी। चंद गहिरी गहिरी साँसें लेने के बाद में ने पैकिंग करनी शुरू कर दी।
मेरी रुम मेट घर आई। खाना खाकर अपना फ़ोन लेकर बैठ गई। में भी वही कर रही थी लेकिन मैंने उस के लिए खाना तो बनाया था। क्या वो बर्तन नहीं धो सकती थी? मैंने ख़ुद को मिज़ाज ठंडा रखने की तलक़ीन की, और याददहानी करवाई कि छुट्टीयों पर से वापिस आकर मुझे एक मेड रखनी ही होगी।
पैकिंग हो गई थी। सर का दर्द लौट आया था। अब बर्तन धोने की बारी थी। बेचैनी और इख़तिलाज की वजह से मुझे सांस लेने में थोड़ी तकलीफ़ हो रही थी। रात हो गई थी लेकिन गर्मी ज़रा कम नहीं हुई थी। बर्तन धो कर हटी तो सर से पैर तक पसीने में नहा गई थी। अच्छी तरह मुँह हाथ धोकर, सर पर थोड़ा पानी डाल कर मैं सोने के लिए लेट गई। ग़ुस्सा हो तो नींद भी नहीं आती। शायद एक बजे मेरी आँख लगी थी।
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कैलेंडर का रिमाइनडर चला नहीं, या मैंने सुना नहीं, सुबह सवा सात बजे नींद खुली। मैंने बरश करके वेज पुलाव पकने के लिए रखा और कपड़े प्रेस कर लिए । पुलाव जल्दी जल्दी में भी काफ़ी अच्छा बना था। मैंने दो टिफिन बॉक्स भरे, बर्तन ख़ाली किए, और धोकर रख दिए। वर्ना मेरे वापिस आने तक कीड़े लग जाते। रुम मेट ने तो धोने नहीं थे।
फिर से एक बार सारी चीज़ें चेक कीं। सब कुछ पैक हो गया था। फ़ोन, वॉलट, आई कार्ड, चार्जर। ऑल सेट। वक़्त तेज़ी से भाग रहा था।मैं पाँच मिनट में नहा कर तैयार हुई , और घर से बाहर निकल गई।
हमारे एरिया में सड़कों की तामीर का काम चल रहा था। अब इस ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर ट्राली बैग खींचना तो मुश्किल था। इतना वज़नी बैग मुझे आटो स्टैंड तक कांधे पर लटका कर ले जाना पड़ा। दस मिनट में ही हालत बुरी हो गई थी। नहाया धोया ज़ाया हो गया। आटो नहीं मिला, कैब ही लेनी पड़ी। कैब में बैठने के दो मिनट बाद याद आया कि मैंने अपना हेडफ़ोन नहीं रखा। शोर को कम करने वाले हेडफ़ोन मैंने बहुत महंगे ख़रीदे थे। मेरे लिए बहुत अहम थे, ख़ुसूसन सफ़र में। मैं अफ़्सुर्दा हो गई। बहरहाल, सवा आठ बजे तक मैं ऑफ़िस पहुंच कर काम के लिए बिलकुल रेडी थी।
मैं उस वक़्त चौबीस साल की थी। मेरी फ़ैमिली इंदौर शहर में होती थी। स्कूल के ज़माने से ही ख़ुदमुख़तारी , आज़ादी का शौक़ था। कॉलेज से फ़ारिग़ होते ही जॉब देखनी शुरू कर दी थी। एक ऐडवरटाइज़िंग एजैंसी में कैमपेन मैनेजर की जॉब कर रही थी। जॉब तो मुंबई में थी। कभी कभी किसी असाइनमेंट के लिए दूसरे शहर भी जाना पड़ता था। इस बार हावड़ा भेजी गई थी। गो कि यह ट्रांसफ़र आरिज़ी था, लेकिन इस की वजह से मुझे एक आदम–बेज़ार, काम-चोर और निकम्मी लड़की के साथ रुम शेयर करना पड़ रहा था।
जब मैं यहां भेजी गई थी तो मुझे समझ नहीं आया था कि मुंबई से एक छोटे से प्राजेक्ट के लिए यहां क्यों भेजा गया है। फिर यहां के लोगों से मिलने के बाद समझ आ गई। यहां की टीम अच्छी नहीं थी। सारे लोग मुक़ामी थे, और मुझसे बड़े थे। मुझे उनसे गुफ़्तगु करना ही बड़ा मुश्किल होता था। बड़ा प्राब्लम यह था कि उन्हें काम धाम करना नहीं था। वो चाहते थे कि सारा काम कोई और करे, और क्रेडिट लेने की बारी आए तो सब झोली फैलाकर खड़े हो जाएं।
अगर ये हरकत मैनेजर करे तो समझ आती थी, कि उनका तो पैदाइशी हक़ बनता है अपने एंप्लॉई की मेहनत का एक हिस्सा अपने नाम कर लें। लेकिन बाक़ी लोग? कहते हैं ना कि आवे का आवा ही बिगड़ा हुआ था। और अब मेरी शक्ल में उन्हें एक क़ुर्बानी की बकरी मिल गई थी। लोग अपना काम वक़्त पर मुकम्मल नहीं करते । और डैडलाइन के बिलकुल क़रीब आकर वो काम मेरे सर मुंढ दिया जाता था। आज में बहुत ही तपी हुई थी ।एक कोलीग लगातार डैडलाइन मिस कर रही थी। मैनेजर से बात करना ज़रूरी था।
“सौरभ, बिन्दू ने अपना प्रेज़ेनटेशन मुकम्मल नहीं किया है।”
“वाक़ई? ज़रूर कोई मसला होगा। चलो, मीटिंग रुम में चलते हैं। बात कर लेते हैं।”
सौरभ, मेरे बॉस के पास हर मसले का एक ही हल था,” मीटिंग रुम”। शायद उसे लगता था कि मीटिंग रुम में जाकर सारे मसले मोजज़ाती तौर पर हल हो जाऐंगे। मुझे उस की तजवीज़ पसंद नहीं आई। मैंने मना करने की कोशिश की।
“मुझे डिस्कस नहीं करना। आप उस से बात कर लें।मैं बस ये कहना चाह रही थी कि आखरी वक़्त में ये काम मेरे सर ना आए।”
“चलो।” उसने मेरी एक ना सुनी।
मीटिंग रुम में जाकर , मेरे बॉस ने गुफ़्तगु कुछ इस तरह शुरू की थी।
“अस्मारा कुछ डिस्कस करना चाह रही है।”
उल्लू का पट्ठा। उस ने सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर क्यों डाल दी? मैंने बदिक़्क़त ख़ुद को कुछ कहने से रोका था।
“मुझे कुछ भी डिस्कस नहीं करना। मैंने नोटिस किया है कि कल एक प्रेज़ेंटेशन मुकम्मल होना था, जो अभी भी तैयार नहीं है। मैं तीन दिन की छुट्टीयों के लिए जा रही हूँ। जब मैं वापिस आऊँ तो मुझे क्लाइंट साईड के मैनेजर को आर्ट वर्क के साथ साथ प्रेज़ेंटेशन भी भेजना करना होगा।”
“हाँ। अभी तक कंप्लीट नहीं हुआ है। मुझे कुछ मसाइल दरपेश हैं।”
बिन्दू ने अपने चेहरे पर एक आजिज़ाना सी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया। वो शर्मिंदा नहीं थी। मैं उस की इस बकवास पर यक़ीन नहीं करने वाली थी। मैंने ज़हनी तौर पर तंज़िया हुंकारा भरा। मगर चेहरे से कुछ ज़ाहिर नहीं होने दिया। इस के बजाय मैं ने पुरसुकून आवाज़ में मश्वरा दिया।
“ठीक है। हम प्राब्लम्स के बारे में बात करते हैं और उन को हल करते हैं।”
“आँ।।। हममम।।। मैं इस पर काम ही नहीं कर पाई थी। कुछ और काम आ गया था।”
वो कुछ सोच कर बोली थी।
“सौरभ, क्या आपने उसे कोई दूसरा काम भी एसाइन किया है?”
मैं मैनेजर की तरफ़ मुतवज्जा हुई, जो लाचारी से ये सब सुन रहा था। उस की” वर्क डाटर” की काम चोरी का पोल खिलने वाला था । और वो मदद नहीं कर सकता था। जी हाँ, वर्क डाटर, जिस तरह वर्क वाइफ़ होता है , समझ आई?
“में तवज्जा नहीं दे पारही हूँ। मेरी बेटी बीमार है।”
मैनेजर के कुछ कहने से पहले ही पट से तीसरा उज़्र आया। और सौरभ की हमदर्दी गोया उबल उबल कर बाहर आ रही थी।
“ओह, नहीं। क्या हुआ अनीता को?”
मैं इस खेल को समझ रही थी। अब इतना तजुर्बा तो हो ही गया था कि बहानेबाज़ी और सच-मुच की किसी रुकावट में फ़र्क़ कर सकूं। वो झूट बोल रही थी। सोने पे सुहागा, मैनेजर उस की हिमायत कर रहा था। अब मैं फ़र्याद लेकर किस के पास जाती। मैं इस बारे में कुछ भी करने से क़ासिर थी। और फिर मैनेजर ने इस सूरत-ए-हाल से निमटने के लिए अपने अछूते ख़्याल का ऐलान किया।
“चलो ।उसे ये काम ख़त्म करने के लिए चंद दिन और दे देते हैं। इस वक़्त तक, आप भी वापिस आ जाएँगी।”
कितना अच्छा आइडिया है, बॉस। वो तो ऑफ़िस आकर भी छुट्टीयों का मज़ा लेगी, और मेरी छुट्टीयों में से तीन दिन की कटौती हो जाएगी। मैं चीख़ना चाहती थी । लेकिन उस से क्या हासिल होता? इस के बजाय, मैंने अपने होंटों को खींच दिया। जी हाँ। मैं अक्सर ऐसा करती थी ।जब मैं मुस्कुराना नहीं चाहती, लेकिन लोगों को उम्मीद होती है कि मैं मुस्कुराओं। तब मैं अपने होंटों के किनारों को भेंच कर निचले होंट को फैला लेती थी। ये एक मुस्कुराहट का तास्सुर देता था।
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इस सब अफ़रातफ़री के बीच, मैं तक़रीबन भूल गई थी कि आज मुझे जल्दी ऑफ़िस से निकलना था। मुझे घर जाने के लिए ट्रेन पकड़नी थी।
भूक से पेट में उद्यम मची हुई थी। खाने के लिए जाने के लिए उठी तो मेरा फ़ोन वाइबरीट होने लगा। फ़ोन देखा। मेरे छोटे भाई समी की काल आ रही थी। फ़ोन उठाया। सैंकड़ों बिल्लियों की लड़ाई के शोर के सिवा कुछ भी नहीं सुनाई नहीं दे रहा था। मैंने डिसकनेक्ट करके दुबारा काल किया। फिर भी सुनाई नहीं दिया। इस बार भी मैं समी के हैंडसेट पर इल्ज़ाम लगा कर मुतमइन हो गई थी।
चंद मिनट बाद मुझे याद आया कि मैंने अब भी मेरी दोस्त नैना के मैसेज का जवाब नहीं दिया था। वो मेरे प्लान्ज़ के बारे में पूछ रही थी। इस बार मेरा इंदौर में अपनी सारी दोस्तों से मिलने और पार्टी करने का प्लान था। मैंने मैसेज की बजाय फ़ोन मिलाया था। इस बार भी पहले की तरह चीख़ती हुई आवाज़ ही सुनाई दी। शायद, मसला मेरे फ़ोन में था। अपने नज़रिए की तसदीक़ करने के लिए मैंने दूसरे नंबरों को फ़ोन लगाया। डायल होते ही बिल्लियां चीख़ने लगती थीं। ख़ैर से फ़ोन को दुबारा शुरू करने से प्राब्लम दूर हो जानी थी। लेकिन नहीं। काल क्वालिटी बद से बदतर हो गई। अब खाना खाने की बजाय मैं फ़ोन को ठीक करने की कोशिश में मसरूफ़ हो गई।
सबसे पहले गूगल किया। कोई हल ना मिला। शायद गूगल के पास भी हर सवाल का जवाब नहीं होता। अभी तीन बजने में थोड़ा वक़्त था और प्लान के मुताबिक़ चार बजे मुझे दफ़्तर से बाहर होना चाहिए था।
अगली कोशिश ये की कि टेलीकॉम कंपनी के कस्टमर स्पोर्ट के साथ ऑनलाइन चैट करके उसे मसला समझाया। उसे बताया कि इनकमिंग और आउट–गोइंग काल्ज़ के वक़्त शायद नैटवर्क का मसला है। जब कि सिगनल पूरे आ रहे हैं। वो अल्लाह का बंदा इतना अक़लमंद निकला कि प्राब्लम डिस्कस करने के लिए फ़ौरन फ़ोन खड़का दिया।” फ़ोन पर कुछ भी नहीं सुनाई नहीं दे रहा।” ये बात शायद उस के भेजे में घुसी नहीं।
मैंने फ़ोन सुधरने की उम्मीद छोड़ दी। और मुझे इस के बारे में बहुत फ़िक्रमंद होने की ज़रूरत नहीं थी। मैं मैसेज और वाट्स एप करके भी तो सब के साथ राबते में रह सकती थी। वैसे भी इस को फिक्स करने के लिए मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं था। घड़ी की सूइयां तेज़ी से एक दूसरे के पीछे भाग रही थीं। तीन बजे से कुछ ऊपर का वक़्त था। और किसी भी क़रीबी दुकान से एक नया हैंडसेट ख़रीदने के लिए भी बहुत देर हो चुकी है।
ग़ुस्सा और भूक से बुरा हाल था। उस पर से दिमाग़ मज़ीद ख़राब करने के लिए, मैनेजर मुझे आर्डर दे दिया था कि कुछ ईमेल भेज दूं। ग़लत ये था कि वो ईमेल्ज़ भेजने की ज़िम्मादारी उस की थी। जिसे वो मुक़र्ररा वक़्त तक भेज नहीं पाया और अब वो मेरे पीछे पड़ा था। ताकि लेट सबमिशन के लिए मुझे क्लाइंट से गालियां सुननी पढ़ें। लीडरशिप की एक उम्दा मिसाल।
“मैं नहीं भेजूँगी।”
मैंने क़तई अंदाज़ में मना कर दिया तो भी वो मुसिर रहा। मैं अपना आउट आफ़ ऑफ़िस सेट करने लगी तब भी वो भी ज़ोर दे रहा था। मैंने उन-सुनी कर दी।
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