Uff Yeh Ladki: Sample Chapters (Hindi)

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इंतिसाब

उन सारे लोगों के नाम

जिन्हें लोग समझ नहीं पाते

जो preconceived notion का निशाना बनते हैं

जो इस कहानी के किरदारों से रीलेट कर सकते हैं

पेशरस

हम वो सुनते हैं, जो हम सुनना चाहते हैं। वो देखते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। वो याद रखते हैं, जो हम याद रखना चाहते हैं।

और बाज़ दफ़ा हम दूसरों के कानों से सुनते हैं, दूसरों की आँखों से देखते हैं, दूसरों का कहा याद रखते हैं।

लेकिन हक़ीक़त कुछ और भी तो हो सकती है?

मेरी ये कहानी एक “हल्की फुल्की कहानी” की कैटेगरी में शामिल की जा सकती है। ये मैं ने किसी मज़हबी, मुआशरती या किसी भी हस्सास मौज़ू पर नहीं लिखा। और इस में हल्के फुल्के अंदाज़ में उन छोटी छोटी बातों को उजागर करने की कोशिश की है, जो हम किसी इन्सान के बारे में फ़र्ज़ कर लेते हैं, बिना जाने कि ये उन्हें हर्ट कर सकता है। इतना कि उन की शख़सियत अंदरूनी टूट-फूट का शिकार हो जाए। हम अपने उसूलों, अपनी पसंद, अपनी लुग़त के हिसाब से लोगों को “अजीब”, “एबनॉर्मल”, “बचकाना”, “खड़ूस” और जाने किन किन नामों से टैग कर देते हैं। और फिर यही उन लोगों कि पहचान बन जाती है। कौन सोचने की ज़हमत करता है कि सच्चाई क्या है? कौन समझने की कोशिश करता है कि वजह-ए-तसमिया क्या है?

कुछ ख़ुश-क़िस्मत होते हैं, सब sort out हो जाता है। जो बहादुर होते हैं, वो सरवाईव कर जाते हैं। बाक़ी स्ट्रगल में ही ज़िंदगी गुज़ार देते हैं। मैं ने कुछ अज़ीज़ लोगों को ऐसी not a big deal किस्म की सिचुएशन से जूझते देखा है। उम्मीद है कि हम किसी पर ऐसा स्ट्रेस डालने का बाइस ना बनें।

ये मेरी पहली कहानी नहीं है, लेकिन सब से पहले पब्लिश होने जा रही है। ऑनलाइन ही सही। हाई स्पीड इंटरनैट का ज़माना है। मैं, और मेरे जैसे बहुत से क़ारईन अब साफ़्ट कापी पढ़ने को तर्जीह देने लगे हैं। पढ़िएगा ज़रूर और अपनी राय से आगाह कीजिए।

सर-ब-कफ़ पबलीकेशन का शुक्रिया, ऑनलाइन पब्लिशिंग का ज़िम्मा लेने के लिए। और मुझे लगातार बढ़ावा देने के लिए।

वस्सलाम

शबाना मुख़तार

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हिस्सा १

ए पगली लड़की

ए पगली लड़की

ए पगली

ए पगली

कहाँ तू जा रही है

कहाँ का ये सफ़र है

कोई मंज़िल नहीं है

कोई जादा नहीं है

कि दिल में मायूसी है

अजब सी बेबसी है           

घुटन सी हो रही है

बहुत हसरत भरी है

ए पगली लड़की

ए पगली लड़की

ए पगली

ए पगली

बहुत जज़्ब से उस ने नज़म ख़त्म की।  आवाज़ में दर्द था और चेहरा पर संजीदगी इतनी कि अल्लाह की पनाह।उस ने सबकी तरफ़ दाद तलब नज़रों से देखा। उसे उम्मीद थी कि इस की इस ज़बरदस्त काविश पर खड़े हो कर तालियाँ बजेंगी।

“हममम।।। ये काफ़ी।।। दिलचस्प है।” हैदर ने बुर्दबारी से सर हिला कर कहा।

“ये नज़म नहीं है।” अनस बोला।

“हाँ, ये तो हानिया ने ख़ुद पे क़सीदा लिखा है।” हैदर ने भी संजीदगी से हाँ मैं हाँ मिलाई। और दोनों मुँह फाड़ कर हँसने लगे। लड़कियों ने थोड़ी समझदारी दिखाते हुए हँसने की बजाय मुस्कुराने पर इकतिफ़ा कर लिया था। ये रद्द-ए-अमल देखकर हानिया ने बच्चों की तरह पैर पटख़े थे। उन की हंसी और तेज़ हो गई।

मैं ने एक ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली नज़म लिखी है। आप लोग जेलस हैं। इस लिए हंस रहे हैं, मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।” उस ने गोया मक्खी उड़ाई। लेकिन इस का अंदरूनी बेचैनी की चुगु़ली खा रहा था।

“उफ़ अल्लाह।।। मैं वाक़ई बहुत जेलस हूँ।” अनस ने कहा और एक-बार फिर क़हक़हे बुलंद हुए।

“भां।।।” हानिया ने ब-आवाज़-ए-बुलंद रोना शुरू किया। हानिया का रोना और बाक़ीयों की खिलखिलाहट।।।

आम तौर पर वीक ऐंड पर यही होता था। सारे एक जगह जमा हो जाते और वो हंगामा करते कि अल-अमान। सफ़दर साहब थोड़े सख़्त मिज़ाज थे, इसलिए आमना बेगम के बच्चे भी यहां आ जाते, और डैडी की बजाए नानी की डाँट बर्दाश्त कर ली जाती । हानिया बीबी सब से छोटी होने के साथ साथ कुछ ज़्यादा ही “अक़लमंद” भी साबित हुई थीं। हमा वक़त उस की”संजीदा बुर्दबार कहानियां” होतीं और बाक़ीयों के शगूफ़े।

ये नोक झोंक और शरारतें ही अली मेंशन की रौनक को दो-बाला करती थीं

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हिस्सा २

अली मुर्तज़ा का ताल्लुक़ कश्मीर के एक ख़ूबसूरत गांव से था। उन के आबा-ए-ओ- अज्दाद वहीं पैदा हुए और उसे मिट्टी में दफ़न हुए। इस ख़ूबसूरत वादी की वाहिद बदसूरती वहां होने वाले दंगे फ़साद, दहश्तगर्द और फायरिंग थी। हुब्ब-उल-व्तनी और आज़ादी के नाम पर मासूम शहरी अपनी ज़िंदगीयों की भेंट चढ़ा रहे थे।

आए दिन के दंगों फ़साद से परेशान हो क्रॉली मुर्तज़ा ने एक अहम फ़ैसला किया, जिससे उनकी ज़िंदगीयां बदल गईं। जब उन्हों ने अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से ग्रैजूएशन किया था तो कुछ दोस्त भोपाल के भी थे। कश्मीर से बाहर बस वही दोस्त उनकी मदद कर सकते थे। इस तरह वो कश्मीर छोड़कर भोपाल में बस गए थे।ज़िंदगी नए सिरे से शुरू हुई थी।

वो बहुत मुश्किल वक़्त था। साल बीतते गए। गांव से कोई ताल्लुक़ ना रहा। अली और उन के बेटों ने सख़्त मेहनत की। दो कमरों के छोटे से किराए के मकान से शुरूआत कर, अब उनकी फ़ैमिली दोमंज़िला बंगला में रहते थे।

अली मुर्तज़ा के दो बेटे थे। सफ़ीर अली और वज़ीर अली। दोनों को शायरी भी का शौक़ था। अक्सर शहर और अतराफ़ के अदबी और सक़ाफ़्ती प्रोग्रामज़ में हिस्सा लेते रहते थे।दोनों उर्दू बोलने वाली कम्यूनिटी में काफ़ी मक़बूल हुए थे।

सफ़ीर अली की ज़िंदगी कम थी। बेवा जहां आरा बेगम और इकलौती बेटी फ़ातिमा को पीछे छोड़ कर अल्लाह को प्यारे हो गए थे। जहां आरा बेगम अब भी भोपाल में ही थीं। फ़ातिमा की शादी कानपूर में हुई थी। इस की क़िस्मत भी माँ की तरह ही थी। फ़ोन पर राबता रहता था, या ख़ुशी ग़मी में मुलाक़ात होती थी। या साल में एक दो बार आ कर माँ और दधियाली रिश्तेदारों से मिल कर चली जाती थीं।

वज़ीर अली-बाबा जान) की शादी नदिरत ख़ानम )अम्मां बी ) से हुई थी। लखनऊ का मीका था। तालीम-ए-याफ़ता थीं, पढ़ने का शौक़ था,अदब से भी लगाओ था। दोनों की जोड़ी बहुत ख़ूब थी। घर का माहौल काफ़ी अदबी हुआ करता था। अब भी दोनों शाइरों और अदीबों से मेल-मुलाक़ात जारी रखे हुए थे।

इस के बावजूद अगली नसल अदब की तरफ़ इतनी माइल ना थी। वज़ीर अली को अक्सर इस बात का क़लक़ होता था। लेकिन कभी बच्चों के फ़ैसलों पर असर अंदाज़ होने की कोशिश ना की। उन का मानना था कि बच्चों को अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद ही करने देने चाहिऐं।

जब सफ़ीर अली ज़िंदा थे तब दोनों भाईयों की फ़ैमिली दोमंज़िला अली मेंशन के एक एक पोर्शन में रहती थीं। सफ़ीर अली ना रहे, तो जहां आरा बेगम को घर की मालियत का आधा हिस्सा देकर अब ऊपर के पोर्शन में भी वज़ीर अली की फ़ैमिली होती थी।

वज़ीर अली के तीन बच्चे थे। बड़ा बेटा अमीन, उस के बाद बेटी आमना और छोटा बेटा अमान। तीनों शादीशुदा आल-ओ-औलाद वाले थे। आमना का घर क़रीब ही था।।

दोनों बेटे सिवल इंजीनियर थे। अमीन और आमना की शादियां एक साथ हुई थीं, अमान की उन के एक साल बाद। लेकिन औलाद की नेमत से अल्लाह ने पहले उन्हें नवाज़ा था।

अमीन अली और उन की बेगम ज़ुबेदा की दो बेटियां थीं – दानिया और हानिया।

आमना बेगम और सफ़दर अहमद के तीन बच्चे थे – शाज़िया, हैदर और नाज़िया।

अमान अली और ताहिरा के तीन बच्चे थे – मूनिस, फ़ायज़ा और अनस।

बड़े से लॉन में एक तरफ़ पार्किंग के लिए शैड बना हुआ था। छोटे से बरामदा में दो दरवाज़े थे। बाएं साईड वाला दरवाज़ा एक दरमियाना साइज़ के कमरा में खुलता था, जो पहले-पहल अदबी महफ़िलों के लिए मुख़तस था और अब मर्दाना बैठक के तौर पर इस्तिमाल होता था।

दूसरा दरवाज़ा बड़े से लाऊन्ज में खुलता था। मेहमानों की आमद पर यहीं रौनक लगती थी। ऊपरी मंज़िल की सीढ़ीयां भी यहीं थीं। बाएं तरफ़ चार कमरे थे। तीन कमरों में बिलतर्तीब अम्मां बी और बाबा जान, दादी अम्मां, अमीन और ज़ुबेदा रिहायश पज़ीर थे। चौथा कमरा दानिया और हानिया का था।

लाऊन्ज से अंदर की तरफ़ बढ़ो तो दोनों दादियों का तख़्त था। खाने के मेनू से लेकर दावत के न्यौते तक हर चीज़ यहीं तै पाती थी। खाने के लिए दस्तर-ख़्वान भी यहीं बिछता था। साथ ही किचन था। या फिर किसी को अकेले बेवक़त खाना होतो किचन में जाकर पीढ़ी पर बैठ कर खालीते।

पीछे बड़ा सा आँगन था। वहीं वाशिंग मशीन रखी थी और कपड़ों को फैलाने के लिए डोरियां बंधी थीं। आँगन के कोने में दो कमरे थे, जहां सरवत बुआ रहती थीं।

उन्हों ने नौ उमरी से इस घर में काम करना शुरू किया था। यहां बीस साल का अरसा गुज़रा था। अब तो घर के एक फ़र्द की तरह ही थीं।उनका बेटा मुज़फ़्फ़र ड्राईवर था। लड़कियों को स्कूल कॉलेज लेकर जाना हो, या ख़वातीन के बाज़ार के चक्कर हूँ, वही लेकर जाता था। इस की बीवी प्रवीण भी घर के कामों यं हाथ बटाती थी। दो लड़के थे। सामने के दाख़िली दरवाज़े के इलावा आँगन में भी एक दरवाज़ा था। जब मेहमान होते और बच्चे कॉलेज से आते तो सेहन के दरवाज़े से ही अंदर आते थे।

ऊपर सात कमरे थे। एक स्टडी रुम कम लाइब्रेरी भी थी। बाबा जान अपना बेशतर वक़्त यहीं गुज़ारते थे। सब के अलयाहदा अलयाहदा कमरे थे। आम तौर पर तीनों लड़कियां बेशतर वक़्त एक कमरा में ही रहती थीं।बाक़ी के कमरों में मेहमानों को ठहराया जाता था।

मूनिस घर भर में पहला बच्चा था। ज़ाहिर है, बेहद चहीता था। इस के बाद ज़ुबेदा और ताहिरा के हाँ बेटियां हुईं। एक दो साल के वक़फ़ा से बाक़ी बचे हुए। माशाअल्लाह भरा पुरा ख़ानदान था। चची के मूनिस के बाद ताई की दानिया, फिर फोपो की शाज़िया और हैदर। चची के अनस और फ़ायज़ा , फोपो की नाज़िया और आख़िर में ताई की हानिया।

मूनिस थोड़ा अलग-थलग , संजीदा रंजीदा सा रहता था। बचपन के लाड और तवज्जा ने उसे बिगाड़ा तो नहीं था, लेकिन बाक़ी बच्चों की बनिसबत संजीदा मिज़ाज हो गया था। एक बड़ी से फ़र्म में चार्टर्ड एकाऊंटैंट की जॉब कर रहा था। दानिया और शाज़िया घर की बड़ी लड़कियां थीं, थोड़ी ज़िम्मा दाराना तबीयत भी पाई थी। शाज़िया ने ग्रैजूएशन के बाद आगे पढ़ाई से मना कर दिया था। दानिया एम-ए के फाईनल इयर में थी।

हैदर और अनस जॉली और शरारती थे। हैदर ने एमबीए किया था और अभी इंटर्नशिप कर रहा था। अनस इंजीनियरिंग के तीसरे साल में था। नाज़िया, फ़ायज़ा और हानिया तक़रीबन हम उमर थे। नाज़िया और फ़ायज़ा आर्टस पढ़ रही थीं, थर्ड इयर चल रहा था। हानिया ने पिछले साल साईंस में एडमिशन लिया था।

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हिस्सा ३

मूनिस की कार पोर्च में दाख़िल हुई। लॉन पर हानिया एक पैर ऊपर किए, एक पैर पर उछल उछल कर लट्टू की तरह घूम रही थी। परवीन के दोनों बच्चे उसे महवियत से ये करतब दिखाते हुए देख रहे थे। फिर उस का तवाज़ुन बिगड़ा।

“आह… आ आ आह। अल्लाह।”

वो कुहनी के बल गिरी थी। बच्चे बेसाख़ता हंस पड़े थे। हंसा तो मूनिस भी था। किसी को गिरता हुआ देख कर हंसी पर क़ाबू कहाँ रहता है। अन्दर जाकर उस ने फ़ायज़ा को आवाज़ दी।

“बाहर देखो। हानिया को चोट लगी है।”और ऊपर अपने कमरा में चला गया।

फ़ायज़ा बिना रीऐक्ट किए बाहर चली गई। ये इत्तिला हर हफ़्ते ही कम अज़ कम एक-बार, किसी ना किसी से मिलती थी कि हानिया को चोट लगी है। कोई कब तक परेशान हो।

सब से छोटी थी। लाड प्यार में अब तक बच्ची ही बनी हुई थी। क़द बढ़ गया था। आदतें अब भी मासूम और बचकाना थीं। बिला झिझक बोलना, हर बात में अपनी राय देना, हानिया का फेवरेट काम था। कोई उसे सीरियसली लेता ही ना था। ये और बात कि कॉलेज में एडमिशन के बाद वो ख़ुद को बहुत मोतबर समझने लगी हो।

यूं तो सारी बच्चियों में कश्मीरी दधियाल का असर था और सभी सुर्ख़-व-सफ़ैद और ख़ूबसूरत थीं। लेकिन हानिया की बात ही कुछ और थी। बेहद प्यारी थी। बड़ी बड़ी लाईट ब्राउन अँखें, लाईट ब्राउन सुनहरी माइल बाल जो हमेशा ऊंची पोनी में बंधे रहते। गुलाबी रंगत, जो बात बे बात रोने से मज़ीद गुलाबी हो जाती। और गालों में पड़ने वाले गहरे गढ़े, जिनमें इन्सान डूब कर बाहर ना आ पाए।

चची को सारी लड़कियों में हानिया सब से प्यारी थी, फ़ायज़ा से भी ज़्यादा। अगर ख़ामोश रहती तो मस्हूर कर देने वाले हुस्न की मालिक थी। लेकिन ये गुड़िया बोलती थी। और ख़ूब बोलती थी। छोटी थी तो एक सवा साल तक कुछ बोलती ना थी। जब बोलना शुरू किया तो शौक़ के मारे सब उसे सारा वक़्त मुख़्तलिफ़ अलफ़ाज़ और जुमले बोलने की मश्क़ करवाते रहते। सारा वक़्त बातें करने की ऐसी आदत पड़ी कि अब तक बाक़ी थी।

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हिस्सा ४

कॉलेज के सालाना फंक्शन शुरू होने वाले थे। सीफ़ीह कॉलेज में ये अरसा किसी मौसम की तरह था, जिसकी आमद का इंतिज़ार हो, तैयारीयां की जाएं। गैदरिंग शुरू होते ही कॉलेज के स्टूडेंट्स दो हिस्सों में तक़सीम हो गए थे। जिन लोगों ने किसी प्रोग्राम में हिस्सा लिया था, वो अपनी तैयारी में मसरूफ़ होते। बाक़ी सभी क्लास बंक कर के लोग इधर उधर घूमते रहते। इन लोगों के लिए तो छुट्टी के बराबर था।

हानिया दूसरे ग्रुप से ताल्लुक़ रखती थी। इस की क्लास के आधे से ज़्यादा स्टूडैंटस भी ग्रांऊड में घास पर घने दरख़्तों की छाओं में बैठे हुए थे। ख़ुद को मसरूफ़ रखने के लिए वो लोग मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पे तबसरा कर रहे थे। शायद दिल को बहलाने के लिए कि जी हम भी बहस-व-मुबाहसा कर सकते हैं, मुंतख़ब नहीं हुए तो किया।

सियासत से लेकर शोबिज़ तक कोई मौज़ू बाक़ी ना था। हानिया बीबी भी ज़ोर-ओ-शोर से हर टॉपिक पर अपनी राय देने में लगी थीं। सुनहरा मौक़ा मिला था दिल खोल कर बोलने का, वगरना घर में तो दादा के इलावा कोई ना था जो उसे सुनता, संजीदगी से। उस के लिए तो गोया ईद थी।

“अच्छा हानिया, तुम्हारे लिए एक सवाल है,” इस की क्लास के एक लड़के फुर्क़ान शेख़ ने खासतौर पर इस से मुख़ातब हो कर कहा। “ये बताओ कि अगर कोई किसी को पसंद करता हो तो उसे अपनी फीलिंगज़ बता दीनी चाहिए। या ख़ुद तक महिदूद रखे।”

तबस्सुम हानिया की कॉलेज की बैस्ट फ्रैंड थी। उस ने इस अजीब सवाल पर भवें अचका कर फुर्क़ान को देखा था। इस से पहले कि तबस्सुम उसे इस हस्सास और बोल्ड टॉपिक पर बोलने से मना करती, हानिया शुरू हो गई थी।

“सीधा सादा अपने वालदैन को भेज कर बात आगे बढ़ाई जाए या पीछे की  जाए । इक्कीसवीं सदी मैं ख़ुद तक महिदूद रखना तो सरासर बेवक़ूफ़ी होगी। और ख़ुद बात करना निहायत ही छिछोरपन।”

बहुत तदब्बुर से अपनी राय दी गई तो फुर्क़ान की बाछें खुल गईं। उसे इस जॉब की तवक़्क़ो ना थी। उसे जवाब मिलने की ही उम्मीद ना थी।

“ओहो, ये तो बहुत अच्छी राय दी तुम ने, थैंक्स।”

फुर्क़ान ने ये सवाल क्यों पूछा, हानिया ने इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत नहीं समझी और ना ही इस बात पर कि इस के जवाब से कोई ख़ुश-फ़हमी में मुबतला हो गया है। तबस्सुम जानती थी कि अगर हानिया को इस बात पर तो का तिवा वो बेहस करने पर तैयार हो जाएगी। फिर उस ने सोचा शायद उस को कोई हिन्ट देने से वो समझ जाये और अपना स्टैंड बदल ले। सो पूछने लगी।

“अच्छा ये बताओ कि पसंद की शादी के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है?”

 

हानिया ने नाक सकोड़ी, थोड़ा सोचा। तबस्सुम को ख़ुशी हुई कि वो सोच रही है, यानी ज़रूर कुछ अच्छा दानिश मंदाना जवाब देगी। फिर हानिया कहने लगी। “मेरा कोई ख़्याल नहीं है। मेरे लिए तो बुज़ुर्गों का हर फ़ैसला बेहतरीन होता है।”

इस जवाब से फुर्क़ान को तो गोया फ़्री हैंड मिल गया। इस की ख़ुशी देख कर लगता था कि बस अभी नाचने लगेगा। उफ़ ये लड़की। तबस्सुम का दिल चाहा कि अपनी वाहिद दोस्त का गला दबा दे, लेकिन सोचा फिर वो अकेली रह जाएगी। मुझे इस से बाद में बात करनी चाहिए, उस ने ख़ौस से वाअदा किया। लेकिन फ़िलवक़्त तो उसे टॉपिक बदलना था, वर्ना अगर यही बात चारी रहती तो । मुम्किन था कि इस की लन-तरानियाँ जारी रहतीं और बात मज़ीद बिगड़ जाती।

“कोई नमरा अहमद का नावल “हालिम “पढ़ रहा है?” तबस्सुम ने सरसरी तौर पर पूछा। जानती थी कि लड़कियों की सारी तवज्जा उधर हो जाएगी। सारी लड़किया एक साथ बोलना शुरू हुईं। लड़के उठ के अलग जा कर बैठ गए। तबस्सुम यही चाहती थी। फिर हालिम पर तबसरा करने में सब इस तरह मगन हुईं कि तबस्सुम ख़ुद ही भूल गई कि उसे हानिया से कुछ बात करनी है।

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हिस्सा ५

कॉलेज गैदरिंग ख़त्म हो कर दो दिन हो गए थे, लेकिन हानिया अब भी एक एक प्रोग्राम पे कमैंटरी करना जारी रखे हुए थी। गैदरिंग के क़िस्से सुना सुना कर ख़वातीन के सर में दर्द कर दिया था।

इस दिन भी कॉलेज जाने के पहले तक ब-आवाज़-ए-बुलंद देर तक कॉलेज के ड्रामा और इस की हीरोइन के कपड़ों की तफ़सील बार-बार दुहराई थी। शायद माँ को इशारा था कि मुझे ईद पर इस तरह के कपड़े बनवाईए गा।

मामूल की अफ़रातफ़री में नाशता ख़त्म हुआ और सब कॉलेज, ऑफ़िस रवाना हुए तो ज़ुबेदा ने परवीन को सफ़ाई का कहा, और ख़ुद किचन में आज का मीनू तर्तीब देने लगीं। दादियों का ये वक़्त टीवी के सामने गुज़रता था। ताहिरा फ़ोन पर मैका बात कर रही थीं। तभी परवीन ने मेहमानों के आने की इत्तिला दी।

“कौन लोग हैं?” ज़ुबेदा ने इशारा से पूछा। वो ताहिरा और सासों को डिस्टर्ब नहीं करना चाह रही थीं, ना ही ज़ोर से पूछ सकती थीं कि मेहमान सुन लेते।

“पता नहीं, पहले हमारे घर कभी नहीं आए। हमारे रिश्तेदारों में से तो नहीं हैं।” परवीन ने जवाबी सरगोशी की। “कह रहे थे कि हानिया के वालदैन से मिलना है।”।

ताहिरा फ़ोन से ज़्यादा सरगोशियों पर ध्यान दे रही थीं , झटपट उल-विदाई कलिमात कहे और फ़ोन रख दिया। ज़ुबेदा ने सबज़ीयां किचन में रखवा दें और ख़ुद हाथ धो कर आगईं। दादीयां भी अंजान ना थीं। टीवी बंद कर दिया गया था।पाँच मिनट बाद चारों ख़वातीन ड्राइंगरूम में अंजान बिन बुलाए मेहमानों के साथ बैठी थीं।

अम्मां भी रख-रखाव वाली थीं। बड़े सलीक़े से बात शुरू की।

“इस्लाम अलैकुम। ख़ुश-आमदीद।मैं नदिरत बेगम। ये मेरी भावज जहां आरा बेगम हैं। दोनों बहुएं ताहिरा और ज़ुबेदा।”

शाइस्ता मुस्कुराहटों और तस्लीमात का तबादला हुआ। अम्मां बी ने बात जारी रखी।

“मैं माज़रत चाहती हूँ, लेकिन मैं ने आप लोगों को पहचाना नहीं। क्या हमारी पहले मुलाक़ात हो चुकी है?”  अम्मां ने पूछा।

“हम फुर्क़ान के पेरेंट्स हैं। फुर्क़ान हानिया के साथ कॉलेज में होता है। पसंद करता है उसे। हमारे पास उस के सिवा कोई चारा ना था कि इस का रिश्ता लेकर आएं।”

चार जुमलों में जैसे धमाका किया था। बिना किसी तमहीद, बिना किसी तआरुफ़ के बम सा गिराया था।

चची तड़प सी गईं। हानिया की पैदाइश के वक़्त से ही उसे अपनी बहू बनाने का सोच रखा था। सिर्फ रिश्ता का सुनकर ही दिल की हालत अजीब हो गई थी।

“हम माज़रत चाहते हैं। हानिया का रिश्ता ख़ानदान में ही तै है।” अम्मां बी ने सुभाओ से कहा।

ताहिरा ने एक सुकून की सांस ली। “शुक्र है। अम्मां ने बात सँभाल ली।” उन्हों ने सोचा।

ख़ातून जो कि फुर्क़ान की माँ होने का दावे कर रही थीं, एक तंज़िया मुस्कुराहट के साथ बोलीं। “क्या हानिया इस रिश्ता से ख़ुश है? क्या इस में बच्चों की मर्ज़ी भी शामिल है? क्योंकि फुर्क़ान ने आप की बेटी से बात की थी। उस ने ही कहा था कि वालदैन को भेजो।”

ज़ुबेदा का ख़ून खोल गया। ज़ुबेदा का ख़ून खोल गया। सिर्फ अलफ़ाज़ ही ज़हरीले नहीं थे, बल्कि जिस अंदाज़ में ये कहा गया था, वो भी निहायत ही घटिया, वाहीयात और आमियाना सा था। इतनी बड़ी बात यूँही कह दी गई थी। उन्हें अपनी सर-फिरी बेटी पर पूरा यक़ीन था कि वो इस तरह का काम नहीं कर सकती, और इस बात पर भी कि ज़रूर उस ने बिना बात को समझे कोई गुल-अफ़्शानी की होगी। उन्हें ये भी यक़ीन था कि ये अख़लाक़ और इन्सानियत से आरी लोग उनकी बेटी की कही हुई बातों को कोई और ही मअनी पहना रहे हैं। ख़ाह हानिया ने जो भी कहा हो।

“रिश्ता वग़ैरा करना बड़ों का काम है। हमने आपस में मैं बात तै कर रखी है। हमने फ़िलहाल बच्चों को ला इलम रखा है। अभी उनका जानना ना तो मुनासिब है, और ना ही ज़रूरी। हम नहीं चाहते कि दौरान-ए-तालीम बच्चों का ज़हन परागंदा हो। ” अम्मां बी ने ज़बरदस्ती की मुस्कुराहट होंटों पर सजा कर कहा था।

“इंशाअल्लाह हानिया के ग्रैजूएशन के बाद शादी होगी।” जहां आरा बेगम ने गुफ़्तगु को आगे बढ़ाते हुए कहा। “मुझे यक़ीन है कि हानिया अपने सारे क्लास मेट्स को मदऊ करेगी। आप लोग भी ज़रूर आईएगा। हमें ख़ुशी होगी अगर आप आकर बच्चों को अपनी दुआओं से नवाज़ेंगे।”  ख़ुशगवार लेकिन क़तई अंदाज़ में कहा। आगे बेहस की गुंजाइश नहीं छोड़ी। चाय ख़ामोशी से पी गई। और वो लोग चले गए।

ज़ुबेदा मायूसी और अफ़सोस के साथ अपना सर हिला रही थीं।

“अम्मां आप ने उनसे कहा क्यों नहीं कि उन्हें ज़रूर ग़लतफ़हमी हुई होगी ।” उन लोगों के रवाना होने के बाद ताहिरा ने शिकवा किया। उन्हें लगा था कि अम्मां बी उन के जाने से पहले ग़लतफ़हमी ज़रूर क्लीयर करेंगी।

“में भी यही सोच रही थी। कैसे मुँह फाड़ कर कह दिया कि आपकी बेटी ने बुलाया है। “ज़ुबेदा ने भी कहा।

“ग़ुस्सा ना करो ज़ुबेदा। लड़कियों के रिश्ता आते ही हैं। उन्हों ने ठीक नहीं किया। इस तरह बोहतान धर देना कोई दानिशमंदी तो नहीं। उनमें सलीक़ा और अख़लाक़ नहीं था अब वो लोग कमज़र्फ़ थे तो हमने रख-रखाव से काम लेना था। यूं भी इल्ज़ाम तराशीयाँ कर के किसी का क्या ही भला होना था?” दादी अम्मां ने सुकून से कहा।

“रात के खाने के बाद तुम चारों मेरे कमरे में आजाना।” वो दोनों बहुओं से बोलीं। फिर अपनी जेठानी की तरफ़ मुतवज्जा हुईं। “भाभी आप भी थोड़ी देर के लिए आजाना। इस बारे में बात करेंगे।” अम्मां बी ने बात समेटी।

सब दुबारा अपने अपने कामों में मसरूफ़ हो गए।

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