कहानी के बारे में
जैसमीन एक अच्छी जॉब मिलने के बाद पूना शिफ्ट हुई है और साथ ही उस का इंडिपेंडेंट होने का सपना भी पूरा हो गया है। मिजाज से थोड़ी बेचैन शक्ति और अकडू टाइप की लड़की है। मां का असर उस पर इतना ज्यादा है कि उसकी मर्जी के बिना एक काम भी नहीं कर सकती। वह अब भी सुबह शाम अपनी मां से फोन पर बात करती है और उसके कहने पर हर मंदिर मस्जिद और दरगाह का चक्कर लगाती है।
कबीर 6 साल तक एक ही कंपनी में जॉब करने के बाद अच्छी और बेहतर नौकरी के लिए पुणे शिफ्ट हुआ है बहुत बिंदास, खुशमिज़ाज और ठंडे में ठंडे दिमाग़ का लड़का है। आम इंसानों से गुना मीना और बात करना ज्यादा पसंद था बजाय सोशल मीडिया पर गैरों से दोस्ती करने के।
दोनों एक मज़ार पर जाते वक़्त मिलते हैं।
एक क्यूट और मज़ाहिया कहानी, दो दिलचस्प और एक दूसरे के उलट किरदारों की।
क्या दोनों पर्सनैलिटी क्लेश होने की वजह से एक दूसरे को नापसंद करेंगे?
क्या दोनों opposite attracts का असर होगा और दोनों में प्यार हो जाएगा?
क्या वो दोनों फिर कभी मिलेंगे?
शायद, किसी दिन, कभी न कभी।
कभी ना कभी एक छोटी सी कहानी है जो अलग से पढ़ी जा सकती है। “और वह हंसी ख़ुशी रहने लगे” थीम की यह आठवीं कहानी है। कहानी की ज़बान और कंटेंट साफ सुथरा है और हर किसी के पढ़ने के लिए मुनासिब है।
Length: 94 pages
हिस्सा 1
२४ नंबर की बस से उतरने के बाद जैसमीन ने अपने फ़ोन पर गूगल मैप्स उप खोलो और इस में सवारगेट बस डिपो ढ़ूंडा। नीली दानेदार लाईन से चार मिनट के फ़ासले पर इस की मंज़िल थी। मोबाइल फ़ोन की स्क्रीन पर नज़र जमाए चलती हुई वो बस डिपो तक पहुंच गई सामने ही एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ था जिस पर बड़े बड़े सुर्ख़ अलफ़ाज़ में PMPML छत्रपति राज श्री शाहू महाराज बस डिपो सवारगेट लिखा हुआ था। जैसमीन डिपो के बाहर खड़ी नज़रों को सकीड़े हुए उन को अरी ऑफ़िस ढूंढ रही थी।
एंक्वायरी ऑफ़िस तो नहीं, एक बैंच जैसा था जिस के चारों तरफ़ लोगों की भीड़ थी। कोई बाक़ायदा क़तार नहीं थी। वो अपनी बारी का इंतिज़ार करने लगी। इस के सामने एक ऊंचा लंबा दुबला पुतला लड़का खड़ा था।
ब्लैक टी शर्ट और जीन्ज़ में मलबूस अमेरेकिन टूरस्टर का बैक पैक लटकाए ये कबीर था। जिसे देख कर ये बिलकुल नहीं लग रहा था कि उसे कहीं जाने की जल्दी है। इस के सामने वाला शख़्स क़तार से हट जाने के बाद भी वो अपनी जगह से नहीं हिला। एक उधेड़ उम्र औरत ने बीच में घुस कर एंक्वायरी ऑफीसर से सवाल जवाब करना शुरू कर दिया।
जैसमीन तेज़ी से अपने दाएं पीर को ज़मीन पर बजाने लगी, ताकि सामने वाले को अंदाज़ा हो कि उसे जल्दी ना सही, बाक़ी लोग जल्दी में हैं। कबीर मुड़ा, एक नज़र उसे देखा। दूसरी नज़र जैसमीन के ठक ठक करते पीर को, और दुबारा पलट गया। अब उस की बारी थी।
“सर, में क़मर अली दरवेश के दरगाह पर जाना चाहता हूँ। मुझे कौन सी बस लेनी होगी?”
पीछे खड़ी जैसमीन ने हर एक लफ़्ज़ को वाज़िह तौर पर सुना था।
“ओह अच्छा, हमारी मंज़िल एक ही है।“ उस ने सोचा ।
“बस नंबर ६१। साड़ह दस बजे बस स्टॉप नंबर तीन से जाएगी।” ऑफीसर ने स्पाट चेहरा लिए जवाब दिया।
“बहुत शुक्रिया, सर” कह कर वो क़तार से अलग हट गया। कबीर को ये देखकर बहुत हैरत हुई कि इस के पीछे खड़ी बड़ी बेसबर लड़की भी इस के साथ ही क़तार से हट गई थी। उस ने एंक्वायरी ऑफीसर से बात नहीं की थी। कबीर ने ऑफ़िस के साथ लगे हुई बस स्टॉप नंबर तीन का एक ख़ामोश सा कोना ढ़ूंडा और पत्थर से बनी बैंच पर बैठ गया। ये जगह साय में थी और शोर से निसबतन दूर थी।
जैसमीन ग़ैर इरादी तौर पर उस के पीछे पीछे चल रही थी। उस ने एंक्वायरी ऑफीसर से बात नहीं की। इस की दो वजूह थीं। एक तो ये कि उसे पता चल गया था कि उसे कौन सी बस लेनी है। दूसरे स्टेट ट्रांसपोर्ट के ज़्यादा-तर लोग ज़बान से ज़्यादा आँखों से काम लेते थे। जैसमीन नहीं चाहती थी कि निगाहों निगाहों में इस के जिस्म का ऐक्सरे लिया जाये। कोई भी लड़की ऐसा नहीं चाहेगी।
कबीर बैंच पर बैठा तो जैसमीन भी इस के बाज़ू धप से बैठ गई और पैर ज़मीन पर मारते हुए ठक ठक करने लगी। कबीर को अजीब सा महसूस हुआ। ये लड़की उस का पीछा कर रही थी या उस का कोई स्क्रू ढीला है। देखने में ही थोड़ी खोई खोई हुई लग रही थी गोया ज़हन कहीं और हो। व्हाइट टी शर्ट और जीन्ज़ के साथ रनिंग शोज़ पहने हुए थी।बाल ऊंची सी पूनी टेल में बंधे हुए थे और इस की हर जुंबिश के साथ वो छोटी सी पूनी टेल हिलती थी। इस का क़द ज़्यादा ना था। शायद पाँच फुट की होगी। और इस का नन्हा मना सरापा उसे मज़ीद कमउमर दिखाता था। देखने में तो पागल नहीं लगती थी, लेकिन ज़ाहिर का क्या भरोसा।
वो काफ़ी बेचैन थी। उस ने अपनी घड़ी पर नज़र डाली। सिर्फ सवा नौ बजे थे। बस के आने में अभी एक घंटे से भी ज़ाइद वक़्त लगना था। इतना लंबा वक़्त इंतिज़ार करने का सोच कर ही वो घबरा रही थी। इस वक़्त में वो क्या कुछ कर सकती थी।
कबीर उसे पाँच मिनट तक गाहे-बा-गाहे देखता रहा। इस का पैर हिलाना और उंगलियां खोलना बंद करना जारी रहा। कबीर यूं तो शांत मिज़ाज का बंदा था, लेकिन हिलते हुए पैरों से उसे उलझन होती थी। इन पाँच मिनटों में वो इंतिज़ार रुक रहा था कि कि शायद इस अजनबी लड़की को ख़ुद ही अंदाज़ा हो जाये और वो रुक जाये। लेकिन अब उस की बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई थी।
“हाय।।।“ वो एक ख़ुशगुवार मुस्कुराहट के साथ लड़की से मुख़ातब हुआ।
“हेलो।“ वो जवाब में बोली थी। वो खोया खोया सा तास्सुर एक दम ही चेहरा से ग़ायब हो गया था।
इस का मतलब है कि ये पागल नहीं है। कबीर ने सोचा
“बुरा ना मानें तो एक बात कहूं?” कबीर ने पूछा
“ज़रूर?” वो बोली। लेकिन कंफ्यूज़ नज़र आती थी, और थोड़ी फ़िक्रमंद भी। उसे अजनबियों से घुलना मिलना, बातें करना पसंद ना था। ये तो इस की मम्मा की ख़ाहिश थी जिस की वजह से वो घूमने निकल जाती थी। वर्ना उस का बस चलता तो वो अपने कमरा से बाहर ना निकलती। लेकिन मम्मा की मर्ज़ी।।।
“आप प्लीज़ पैर ना हलाईए। मुझे उलझन होती है।“ कबीर बोला।
वो कुछ ना बोली। अब भी अपने ख़्यालात में गुम थी। कबीर य उस की आँखों के सामने उंगलियां हिलाएँ तो वो चौंकी। उस ने एक लफ़्ज़ भी ना सुना था।
“प्लीज़। पैर ना हलाईए।। मुझे उलझन होती है।“ कबीर दुबारा बोला।
“अगर मैं ना हिलाऊँ तो मुझे उलझन होती है।“ वो बोल कर दूसरी तरफ़ देखने लगी। कबीर लाजवाब हो गया। इस बात का क्या जवाब देता। उस ने अतराफ़ में नज़रें घुमाएं, ताकि कोई दिलचस्प इन्सान या या दिलचस्प मंज़र देखने को मिले। कुछ भी पसंद ना आया तो उस ने अपने हाथ में पकड़ी किताब The Monk Who Sold His Ferrari” की तरफ़ तवज्जा की।
जैसमीन को एहसास हो गया था कि वो काफ़ी सख़्त लहजा इख़तियार कर गई थी। लेकिन माफ़ी माँगना उस की सरिशत में ना था। इस लिए टॉपिक बदलने की ग़रज़ से बोली। “ये किताब कैसी लगी आप को?”
“ठीक है।“ कबीर ने उसे एक नज़र देखकर जवाब दिया। ये लड़की तो उसे हैरान कर देने पर तली हुई थी। “मैं ने अभी पूरी नहीं पढ़ी।“
“मेरी रुम मेट पढ़ रही थी। तारीफ़ें कर कर उस ने मेरा नाक में दम कर दिया था। लेकिन मुझे समझ नहीं आती। इस का टाइटल, उस का कोर देख कर मुझे ये लगता कि काफ़ी सीरियस नान फ़िक्शन किताब है। और मुझे नान फ़िक्शन पढ़ने में मज़ा नहीं आता।“ वो तफ़सील से बोली।
अगर कबीर को इस की इस दोस्ताना गुफ़्तगु पर हैरत हुई भी थी तो उस ने ज़ाहिर नहीं किया। उसे लोगों से बातचीत करना पसंद था। और ये लड़की गुफ़्तगु के लिए इतनी बुरी भी ना थी। बस का इंतिज़ार करते हुए वक़्त तो गुज़ारना ही था।
“नान फ़िक्शन ही है, लेकिन अंदाज़ क़िस्सा गोई का सा ही है।“ वो बोला। जैसमीन इस बात से मुतास्सिर नज़र नहीं हुई थी।
“मुझे भी नान फ़िक्शन पढ़ना पसंद नहीं,” कबीर ने एतराफ़ किया। “लेकिन ये किताब मुझे गिफ्ट मिली थी। मैं ने सोचा पढ़ लेते हैं। ये उन किताबों में से है जिसे अप के हाथ में देख कर लोग मुतास्सिर हो जाते हैं। में एक वक़्त में एक ही चैप्टर पढ़ता हूँ। ये हमें ज़िंदगी गुज़राने का फ़न सिखाने वाली किताब है।“
“आप ने कुछ सीखा?” जैसमीन ने पूछा।
“अभी तक तो नहीं।।।“ कह कर कबीर हंस पड़ा।
“अफ़सोस की बात है। अगर आप ने कोई और किताब लाई होती तो शायद मैं ने पढ़ने के लिए मांगी होती।“
कबीर ने कुछ जवाब ना दिया तो जैसमीन फिर से पैर ठीक ठक करने लगी। उंगलियां बैग की सतह पर ड्रम बजा रही थीं। कबीर ने किताब बैग के अंदर रखी और अपने साथ बैठी बेसब्र लड़की की तरफ़ मुतवज्जा हुआ।
“आप इतनी बेचैन क्यों हैं?” उस ने हिम्मत कर के पूछा था।
वो किसी उल्टा जवाब के लिए अच्छी तरह तैयार था। लेकिन जैसमीन ने सादा लहजे में जवाब दे कर उसे फिर से हैरान कर दिया।”मुझे anxiety प्राब्लम्ज़ हैं।“
या दूसरी बार था कि कबीर लाजवाब हुआ था। इस बात का क्या जवाब देता।
“आप अकेली हैं?” अगला सवाल किया।
“हाँ।“
“आप कहाँ जा रही हैं?” कबीर ने पूछा।
“जहां आप जा रहे हैं।“ इस बार वो जवाब दे कर मुस्कुराई। इस की मुस्कुराहट बहुत प्यारी थी। शायद इसी लय कम मुस्कुराती थी।
“ओह।।।“ कबीर को सारा क़िस्सा समझ आ गया। “तो इसी लिए आपने एंक्वायरी डैसक पर कुछ पूछा नहीं था।“
“जी।।। उन की जॉब पहले ही इतनी मुश्किल होती है। मैं ने सोचा जब मुझे अपने सवाल का जवाब मिल ही गया है तो मैं क्यों ना उन के दो मिनट बचा लूं।“ जिसेमीन बोली।
फिर ख़ुद से मुख़ातब हुई।”ये तीसरी वजह है कि मैं ने इस ऑफीसर से बात नहीं की।“
कबीर उस की बात से मुतास्सिर हो गया था।
“अच्छा।।। मुझे लगा कि।।।“ उस ने जुमला अधूरा छोड़ दिया।
“कि मैं पागल तो नहीं?” जैसमीन ने इस की बात मुकम्मल की।
“ऐसा ही कुछ लगा था।“ वो इक़रार कर गया।
बड़ा ही मुँह-फुट है। फ्रैंक होना और साफ़ गो होना लोगों को हर्ट कर सकता है। मम्मा सही कहती हैं। जैसमीन ने सोचा। साथ ही अह्द किया कि अब वो अपनी साफ़-गोई पर क़ाबू करेगी।
***
हिस्सा 2
“आप को नहीं लगता कि बस की फ्रीक्वेंसी ज़्यादा होनी चाहिए?” जैसमीन ने अचानक ही मौज़ू बदल दिया।
“मेरे सोचने से कुछ बदलने तो नहीं वाला?” कबीर बोला।
हाएं। क्या ये वाक़ई इतने मुतमइन हैं? जैसमीन ने सोचा। फिर बह वाज़-ए-बुलंद कहा। “नहीं।।। लेकिन।।। मेरा मतलब है कि।।। अगर सारे शहरी मिलकर दरख़ास्त करें तो हो सकता है कि ज़्यादा बसें चलाई जाएं।“
“शायद दरगाह के लिए आना जाना थोड़ा ‘मौसमी’ टाइप का है। अगर ज़्यादा बसें होंगी तो सीज़न के बाहर स्टेट ट्रांसपोर्ट का नुक़्सान होगा।“
“हममम।।। हो सकता है कि आप की बात सही हो।।।“
“तुम क्रिस्चियन हो?” कबीर ने इस के गले में पड़े लॉकेट को देखा, जिस में एक गोल्ड क्रास पड़ा हुआ था। आप से तुम तक का फ़ासिला यूँही सरसरी तौर पर ख़त्म हो गया था।
“हाँ।“ कह कर वो ग़ैर इरादी तौर पर अपने लॉकेट से खेलने लगी।
“तो मुस्लिम दरगाह क्यों जा रही हो?” कबीर ने पूछा।
“मेरी मम्मा थोड़ी ज़्यादा ही मज़हबी हैं। चर्च के साथ साथ मुझे मंदिर, मस्जिद, दरगाह जाने की ताकीद करते रहती हैं। जब से पूना आई हूँ, तब से यही चल रहा है।“
“मतलब तुम्हें पसंद नहीं है?”
“ज़्यादा पसंद नहीं है।“ उस ने इक़रार किया। “मैं थोड़ी काहिल सी हूँ। घर में रहना पसंद करती हूँ।“
“तो मम्मा से मना क्यों नहीं कर देतीं?” कबीर को इस में दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी।
“मैं उन्हें मना नहीं कर सकती।“ वो मुँह बना कर बोली।
“या झूट बोल दो,” कबीर ने यूँही राय दी, सिर्फ ये देखने के लिए कि इस का क्या री ऐक्शण होता है।
“क्या मतलब?” वो कंफ्यूज़ हुई।
“मतलब कह देना कि गई थी। लेकिन जाने की ज़रूरत तो नहीं।“
“आप जानते नहीं। मेरी मम्मा बड़ी शार्प हैं। वो मुझ से फ़ोटोज़ का कहती हैं। उन का कहना है कि वो मेरे साथ साथ इन सारी जगहों का तजुर्बा करना चाहती हूँ। लेकिन शायद उन्हें सबूत चाहिए होता है, कि मैं जाती भी हूँ या नहीं।“
“तो फिर अकेले जाने की क्या ज़रूरत है?” कबीर अब रीलैक्स हो कर बात कर रहा था। जैसमीन की बेचैनी ख़त्म हो गई थी। हाथ और पैर सुकून से थे। दोस्ती होने लगी थी।
“मेरी रुम मेट्स को घूमने फिरने से ज़्यादा शॉपिंग, माल और मूवी का शौक़ है।“
“अच्छा।।।“
“आप क्यों जा रहे हैं?” इस बार जैसमीन ने सवाल किया। वक़्त तो गुज़ारना ही था।
“मैं छोटा था तब में अपने पेरेंट्स के साथ आया था। मुझे अब भी याद है कि कैसे एक नारा लगाने पर वो पत्थर हवा में उठा था। मुझे तभी से शौक़ था कि मैं बड़ा हो कर एक-बार और ज़रूर आऊँगा, ताकि ख़ुद इस पत्थर को हाथ लगा सकूँ।“
“मुझे अब भी लगता है कि बस मज़ीद होनी चाहिऐं।“ जैसमीन ने दुहराया। शायद बात को भूल जाना या छोड़ देना उस की फ़ित्रत में नहीं था।
“तुम्हें बहुत ज़्यादा काम करने की आदत है?”
“नहीं।।। उल्टा है। मुझे आठ घंटे काम करना ही बड़ा मुश्किल होता है। बस सैलरी के लिए जाती हूँ। अपने पैसे ख़र्च करने को मिलता है। जो दिल चाहता है, ख़रीद सकती हूँ।ऐसा नहीं है कि पहले मैं तरसती थी। अपने पैसों से चीज़ें ख़रीदना एक अजीब ही ख़ुशी देता है।“
कबीर दम साधे सन रहा था। एक वक़्त वो बातूनी हो जाती थी, और दूसरे ही लम्हे अजनबी।बड़ी मूडी सी लड़की थी।
“हममम।।। मैं समझ सकता हूँ।“ कबीर ने कहा। “लड़कों के लिए तो ऐसा होता है कि शुरू से ही उम्मीद की जाती है कि उन्हें जल्द अज़ जल्द कमाना है। लेकिन लड़कीयों के पास लग्झरी होती है कि जॉब करना है या नहीं।“
“हाँ।।। आप सही कह रहे हैं। कुछ होती हैं जिन्हें जॉब की ज़रूरत होती है, फ़ैमिली को स्पोर्ट करने के लिए। कुछ करीयर माइंडिड होती हैं। और कोई मेरी तरह ख़ुश-क़िस्मत होती हैं, जिन्हें आज़ादी होती है कि जॉब करें या ना करें।“
“ये जान कर ख़ुशी हुई।“
अगले ही लम्हे जैसमीन अपने स्मार्ट फोन पर बिज़ी हो गई और कबीर आस-पास के लोगों को देखने लगा। उन के बारे में छोटी छोटी बातें नोटिस करने लगा, उन की ज़ाहिरी हालत और बॉडी लैंग्वेज का मुशाहिदा करने लगा। उसे असली दुनिया के असली लोगों में ज़्यादा दिलचस्पी थी। अब बस स्टॉप पर भीड़ बढ़ गई थी।
पाँच मिनट बाद अचानक जैसमीन उछल कर खड़ी हो गई। “61 नंबर की बस आ रही है।“ वो ख़ुशी से बोली।
कबीर ने कुछ नहीं कहा, ना ही अपनी जगह से हिला।
अब भेड़ बहुत बढ़ गई थी और जैसमीन को घबराहट होने लगी। अगर वो बस के अंदर नहीं जा पाई तो? अगर उसे सीट नहीं मिली तो? अगर वो अपने स्टॉप पर उतर ना सकी तो।
“एक्सक्यूज़ मी?” वो कबीर से मुख़ातब हुई। “मैं आप से एक फ़ेवर मांग सकती हूँ, प्लीज़?”
“जी ज़रूर।“ कबीर को इस के अचानक बदले हुए लहजा और रवैय्या पर हैरत हुई। ऐसा लग रहा था कि पहली बार बात कर रही हो।
“अगर आप पहले बस में चढ़ेतो प्लीज़ मेरे लिए सीट रखिएगा।“ उस ने दरख़ास्त की। “अगर में पहले चढ़ गई तो में भी आप के लिए सीट रखूँगी।“
“ठीक है।“ वो बोला। “मेरा नाम कबीर ख़ान है।“ उस ने अपना तआरुफ़ किया।
“थैंक यू।“ वो मुस्कुराई। “जैसमीन फ़र्नांडीज़।“
बस डिपो में आई ज़रूर लेकिन स्टॉप पर रुकने की बजाय डिपो के अंदर दूर एक कोने में चली गई जहां और कई बसें खड़ी हुई थीं। जैसमीन का मुँह उतर गया, और वो धुप से फिर से अपनी जगह बैठ गई।
कबीर हंस पड़ा। “मैं ने तो पहले ही कहा था।“
“वाट एवर।“ वो मुँह बना कर बोली।
अब भीड़ बाजमाअत उस जानिब देख रही थी जिधर बस गई थी, गोया इस तरह घूरने से बस जल्दी आ जाएगी। थोड़ी देर बाद जब बस आती धाकई दी तो जसमीन फिर से खड़ी हो गई। बस के आस-पास साठ सत्तर लोग खड़े थे। कुछ बस की तरफ़ भागने लगे ताकि बस के रुकते ही इस में चढ़ सकें। भीड़ ऐसी थी कि बस को अपने मुक़र्ररा स्टॉप पर आने की भी जगह ना थी। कबीर और जैसमीन स्टॉप के दूसरे किनारे की तरफ़ थे।
“हम नहीं चढ़ पाएँगे।“ वो मनमनाई।
“हम चढ़ जाऐंगे।“ कबीर ने उसे यक़ीन दिलाया।
“हमें सीट नहीं मिलेगी।“
“इस की गारंटी तो नहीं दे सकते, लेकिन बस में तो चढ़ ही जाऐंगे।“
भीड़ बस के रास्ते से हटने को तैयार ना थी। बस कंडक्टर के बार-बार बोललने के बावजूद जब रास्ता क्लीयर ना हुआ तो वो नीचे उतर आया और चीख़ चीख़ कर लोगों को रास्ते से हटाने लगा।
“रास्ता छोड़ यए। क़तार बना कर खड़े हो जईए। टिकट लिए बिना कोई भी बस में नहीं चढ़ेगा। लाईन बनाइऐ। तीस रुपय तैयार रखीए।“
ये सुन कर लोगों पर थोड़ा असर हुआ और सब जल्दी जल्दी लाईन बना कर खड़े हो गए। अफ़रातफ़री कम हो गई। बस इंच इंच सरकती हुई अपनी मुक़र्ररा जगह आकर रुक गई। ड्राईवर और कंडक्टर आराम से टहलते हुए ऑफ़िस की तरफ़ गए। पहले से बेचैन पब्लिक और भी कसमसाने लगी। दो मिनट बाद बस कंडक्टर ने टिकट देने शुरू किया।
“हाँ सर।।। कहाँ जाना है? कंडक्टर ने कबीर से पूछा। जैसमीन अपनी बड़ी सी मुस्कुराहट को छुपा ना सकी
“क़मर अली दरवेश के दो टिक्टस, प्लीज़।“ कबीर मुस्कुरा कर बोला और किराया अदा किया।
“आप चढ़ सकते हैं।“ कह कर बस कंडक्टर ने चेंज वापिस किया और अगले पसैंजर की तरफ़ बढ़ गया।
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